Thursday 16 May 2019

अश्क

अश्कों के इस समन्दर से
इक ऐसा जाम बना साकी
याद रहे यही लम्हा बस
जहन में और कुछ न रहे बाकी

Wednesday 15 May 2019

खामोशी

बहुत कुछ कहना चाहती है मेरे लबों की खामोशी उससे
पर कमबख्त उसके हुश्न ने दिवाना बना रखा है

Tuesday 22 May 2018

माँ


माँ के प्यार की रब ने ऐसी मिसाल दी !
जन्नत ऊठा के माँ के कदमों में डाल दी !!

आ मिल जरा




   
       आ मिल जरा मुझसे दिलवर मै तुझ में ऐसे घुल जाऊँ
           तु मेरे दिल की धड़कन बनजा मै तेरे साँसों की खुश्बु बन जाऊँ

आ मिल जरा


आ मिल जरा ताजा कर लुं मै वो पल अपने याराना का
जो इबारत वर्षो पहले लिखा था हमने अपने दोस्ताना का

Thursday 17 May 2018

रमजान मुबारक

दुनिया जिस भूख-प्यास से डरती है|
इस्लाम ने उसे "इबादत" बना दिया..!
यह इस बात की गवाही है कि जब आप दुनिया की सबसे ज़रूरी चीज़ भूख और प्यास से दूरी बना सकते है तो, बुरी आदतें, ग़ीबत, बेईमानी, मक्कारी, झूठ, फरेब और हर तरह के गुनाह से दूर होना कोई बड़ी बात नहीं! रमजान मुबारक दोस्तों

Saturday 28 April 2018

सोच

मेरी एक आदत है मै रोज रात को सोने से पहले ये दुआ करता हुं कि 
ऐ खुदा दूनिया के सभी इंसानों की गलतीयों माफ कर ।
पर कुछ दिनों से ये दुआ मांगते वक्त मेरी जबान रूक जाती है और मेरा मन खुद से ये सवाल करता है कि खुदा क्यूं माफ करे उन्हें जो मासुमों पे कहर ढाते हैं ; जो मासुम बच्चीयों के साथ हैवानियत करते हैं। क्या मैं कभी माफ कर सकता हुं उन्हें........... 
शायद ...... 
कभी..
कभी नहीं .....
अगर मैं माफ नहीं कर सकता उन्हें तो खुदा कैसे माफ करे । उसके तो उसकी बाग से सबसे खूबसूरत फुलों को मारा जा रहा है ।
यही सोच के मैं दुआ को थोड़ा बदल देता हूं कि...
ऐ खुदा सब को सोचने और बेबसों पे रहम करने वाला बना...........
.......आमीन..


Friday 20 April 2018

सियासत

वक्त की सियासत से खटास आई है हम में
वरना दोस्ती तो हमारी वर्षों पुरानी है

Friday 23 February 2018

मजहब और यारी


आखिर कौन सीखता हुई है हम से
रात की निन्द खफा हुई है हम से
हम तो अन्जान थे मजहब के इन दिवारो से
हर खुशी मिलती थी हमे बचपन के यारो से
मजहब ने हम मे ये कौन सा रंग भर दिया है
उसे हिन्दू तो मुझे मुस्लिम कर दिया है
एक जुनुन था कि जिन्दगी के हर मुसकिल हालातो से
लड़ेंगे हम मिलकर अपने मजबूत जज्बातों से
मजहब ने लाके खड़ा किया है हमे ऐसे दोराहो पर
जैसे मोती बिखरे हो सरेआम चौराहो पर
मोती की तरह ही हम यूँहि लुटे जा रहे है
यारी ना होने से हर जगह कुटे जा रहे है
जाने कबतक बाहर निकलेंगे मजहब के इन दिवारो से
जाने कबअब गले लगेंगे अपने जिगरी यारो से
मजहब ने हम को अलग किया है मजहब ही हमे मिलायेगा
जब उसका मजहब उसको मेरा मेरी समझ मे आयेगा
अबतक के हर लम्हो मे उसका ही साथ रहा है
खुशीयों की हर बारिस मे उसका ही हाथ रहा है
जिन्दगी ने हमारे साथ ये कौनसा खेल खेला है
 मै भी यहाँ अकेला हू सायद वो भी आज अकेला है
कबतक हम यूँ लगे रहेंगे इन मजहबी उन्नमादों मे
कबतक हम यूँ याद करेंगे एक दूसरे को यादों मे
चलो मिटा दें हम कट्टरता को अपने अपने मजहब से
तु पूजा  करे मै दूआ करूँ अपने अपने रब से
लग रहा है कट्टरता की खता हुई है हमसे
इसीलिये रातों की निंद खफा हुइ है हमसे